हिंदी आधुनिकता के गर्भ से जन्मी स्वाधीनता संग्राम की बेटी है।

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उसके संस्कार जनतांत्रिक हैं।

इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उसने तत्सम-तद्भव-देशज की ही पंक्ति में विदेशज को भी बिठाया है और वह हमेशा यह मानकर चली है कि जैसे हर व्यक्ति अपने ढंग से अनूठा है, हर भाषा भी।

कोई अनामगोत्र है, उसके पीछे विरासत की गठरी नहीं तो भी वह इतना ही अनूठा है, उसमें भी उतनी ही सम्भावनाएं अंतर्भुक्त हैं जिन्हें सामने लाने का हरसम्भव प्रयास न सिर्फ सरकारी समितियों बल्कि भगिनी भाषाओं को भी करना चाहिए- उससे बोलकर, उसका संकोच तोड़कर, सुन्दर अनुवादों द्वारा उसमें नई त्वरा, नई बिजली भरकर।

हिंदी भाषा है और इसकी समृद्धि में कहीं कोई कमी नहीं। जितने अनुवाद विदेशी और भारतीय भाषाओं से हिंदी में हुए हैं, उतने किसी और भाषा में नहीं हुए।

हिंदी ने सबको ही प्यार से अंकवारा है! महादेवी वर्मा ने जिन दिनों ‘चांद’ के अंक निकाले थे, उन्होंने अनूठा काम किया! हिन्दुस्तानी-हिंदी, मराठी-हिंदी, मलयाली-हिंदी, पंजाबी-हिंदी, बांग्ला-हिंदी के कई मनहर आलेख उन्होंने छापे। वहां की प्रबुद्ध लेखिकाओं से हिंदी में लेख लिखवाए या उनके लेखों के ऐसे अनुवाद सम्भव किए, जिनमें उनकी मातृभाषा की छांह थी।

हिंदी-पट्टी के कई विवाद एकदम से सुलझ गए- हिंदी का भगिनी भाषा उर्दू और अपनी ही पितामही-मातामही भाषाओं यानी बोलियों से जो रगड़ा सुलगाया जा रहा था,

उसका प्रत्यक्ष समाधान भगिनी भाषाओं की यह होली है, जिसमें सब पर सबका रंग हो- वह भी प्रीत का गाढ़ा, चटक रंग- ऐसा कि ‘धोबिनिया धोए आधी रात! हिंदी की भारतीयता का सबसे बड़ा प्रमाण है इसकी सर्वग्राहकता!

भारत की कोई गली, कोई सड़क ऐसी नहीं जहां हिंदी बोलने वाला व्यक्ति अपने आधारभूत वाक्य/मंतव्य सामने वाले को समझा न सके।

टीवी-सिनेमा, वीडियो, विज्ञापन, नेताओं के राष्ट्रीय प्रसारण हिंदी के सरल-सरस मुहावरे जनमानस में ऐसे छिड़क देते हैं, जैसे अक्षत-रोली देव-मूर्तियों पर छिड़की जाती है! तो कुंचम-कुंचम, एकटू-एकटू, थोड़ा-थोड़ा समावेशन हर भारतीय भाषा में हिंदी का हो ही चुका है।

मुहल्ले की सबसे छोटी बच्ची की तरह हिंदी भारत के हर भाषा-घर में निर्द्वंद्व घूमी-फिरी है, सबकी गोद चढ़ी है!

स्वाधीनता आंदोलन की भाषा हिंदी बनी तो सबकी सहमति से ही- गांधी-पटेल की मातृभाषा गुजराती थी,

राजगोपालाचारी तमिल भाषी थे, टैगोर, राजेंद्र मित्र और सुनीति चन्द्र चट्टोपाध्याय बांग्ला भाषी थे, अम्बेडकर मराठी भाषी, लाला लाजपत राय पंजाबी भाषी थे।

थोड़े फर्क के साथ हिंदू-मुसलमान दोनों इसे बोलते हैं। भाषा-परिवार की सबसे छोटी, सबसे मिठबोलवा बेटी के रूप में विकसित हुआ है इसका नागर स्वरूप- खड़ी बोली से उभरी है पर सरोकारों में जनतांत्रिक है- तत्सम-तद्भव-देशज-विदेशज सब तरह के शब्दों को एक पांत में बिठाने का जनतांत्रिक संस्कार इसमें है।

हिंदी भारत के लिए सेतु-भाषा है- जैसे अंग्रेजी विश्व के लिए! आसन्न परिवेश से, आमजन से गहनतम संवाद के लिए स्थानीय भाषा के साथ एक सूत्रधार भाषा या सेतु भाषा तो ठीक से जाननी ही चाहिए। और भाषा जानने का सबसे कारगर माध्यम साहित्य है क्योंकि भाषा के सबसे सरस, बंकिम, स्मरणीय प्रयोगों का खजाना है वह!

कोई भाषा ठीक तरह से जाननी हो तो उस भाषा-भाषी से प्रेम करिए और अंतरंग बातचीत, उसका साहित्य पढ़िए, उस भाषा की फिल्में देखिए। जो अच्छा लगे, उसका अनुवाद करके बच्चों को सुनाइए। सम्भव हो तो चुने हुए अंशों का मंचन भी कराइए। इतनी प्रतिश्रुति तो हर नागरिक से भाषा मांगती है। यह भी एक तरह का मातृऋण है जो हमें चुकाना ही चाहिए!

हिंदी हंसमुख दोस्त भाषा है- सड़क और गलियों की भाषा, पंचायत, कहवाघर, चाय-ढाबों और विचार-विमर्श की भाषा भी। भाषा हो या व्यक्ति- बढ़ता वही है जो सबको प्यार करता है, सबको लेकर चलता है।

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