चर्चित नाटक “जूता” का हुआ मंचन

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प्रो. पूर्णिमा शेखर सिंह की स्मृति में डिसेबल्ड स्पोर्ट्स एण्ड वेलफेयर एकेडमी(रंगमंडल) द्वारा
योगेश चन्द्र श्रीवास्तव लिखित एवं जाने माने रंगकर्मी कुमार मानव द्वारा निर्देशित हिन्दी नाटक जूता का मंचन कालिदास रंगालय, पटना में किया गया।

सर्वप्रथम उदघाटनकर्ता श्री अंजनी कुमार सिंह, निदेशक, बिहार संग्रहालय, मुख्य अतिथि डॉo दिवाकर तेजस्वी, चिकित्सक एवं समाजसेवी, विशिष्ट अतिथि कुमार अभिषेक रंजन, महासचिव बिहार आर्ट थियेटर, प्रोo कमल प्रसाद बौद्ध, अध्यक्ष शिक्षा संकाय, पाटलिपुत्रा युनिवर्सिटी, श्री अरूण कुमार सिन्हा, वरिष्ठ रंगकारी, श्री विश्वमोहन चौधरी संत, वरिष्ठ पत्रकार एवं कार्यक्रम निर्देशक श्री सुमन कुमार द्वारा प्रो. पूर्णिमा शेखर सिंह के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई।


जूता नाटक के केंद्र में नायक रणजीत और उसका बचपन का दोस्त नितेश है। रणजीत एक बहुत बड़ा उद्योगपति है। उसके पास अकूत धन संपत्ति है। उसकी नजरों में दौलत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। वहीं नितेश एक गरीब आदमी है।

वह इमानदार और स्वाभिमानी है। ईमानदारी ही उसके लिए सर्वोपरि है। दोनो दोस्तों के बीच ईमानदारी और दौलत को लेकर बहस छिड़ जाती है।

रणजीत का मानना है कि दौलत ही सबकुछ है, दौलत को चाहे जैसे भी हो हासिल करो। लेकिन नितेश का कहना है की ईमानदारी से बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं। रणजीत अपने दोस्त को नीचा दिखाने के लिए अखबार में विज्ञापन निकलवाता है की पांच जूते खाइए और बदले में बीस हजार पाइए।

दुखी होकर नितेश, रणजीत से कहता है की यदि मेरी ईमानदारी हार गई तो मैं तो मर जाऊंगा लेकिन जिस दिन तुम्हारी दौलत हार गई तो तुम पागल हो जाओगे। घुट घुट कर मरने के लिए जिंदा रहोगे।

होता भी वही है। भारत जैसे गरीब देश में जूते खाने वालों की लंबी लाइन लग जाती है जो तबतक खत्म नहीं होती है जबतक रणजीत के पैसे खत्म नहीं हो जाते हैं।

अंत में नितेश गरीबी से हारकर इमानदारी को ताख़ पर रखकर रणजीत के पास जूते खाकर पैसे लेने आता है ताकि बीमार बूढी मां का इलाज करा सके, भूखे भाई बहनों के लिए भोजन जुटा सके।

लेकिन पैसे नहीं मिलने पर नितेश गरीबी के दंश को झेल नहीं पाता है और उसकी मौत हो जाती है। रणजीत कंगाल होने के बाद पागल हो जाता है।

नाटक में कई बिंबों को दर्शाया गया है। एक और धनी व्यक्ति विश्वजीत, विज्ञापन को देखकर नाटक के मध्य में रणजीत के पास आता है और कहता है की ये दौलत किसी की नही हुई।

मेरे पास तुमसे भी ज्यादा दौलत है लेकिन मैं तुम्हारी तरह नीच नहीं।

मैं अपनी कमाई हुई दौलत गरीब, लाचार, असहाय, जरूरतमंद में बांट देता हूँ। इंसान होकर इंसानियत को जिंदा रखने की कोशिश करता हूँ।

तुम जूते मारकर रुपए देने की बात कर रहे हो, इस गरीब देश में जूते खाकर रुपए लेनेवाले की लंबी लाइन लग जायेगी और वो तबतक खत्म नहीं होगी जबतक तुम्हारे रुपए खत्म नहीं हो जायेंगे, उसके बाद लोग तुम्हे जूते मारेंगे क्योंकि तुमने इंसानियत को दौलत से तौलकर नैतिकता के मुंह पर तमाचा मारा है।

नाटक में एक अखबार वाले का ये कहना कि मेहनत से कमाता हूँ, मेहनत की खाता हूँ, किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता हूँ।

जिन्हें जमीर बेचकर, जूते खाकर पैसे लेने हों वो बड़े शौक से जूते खाएं।

नाटक जूता इस यथार्थ को दर्शाता है कि सच्चाई और ईमानदारी से प्राप्त दौलत ही मनुष्य को सच्चा सुख देती है। प्रस्तुत नाटक को दर्शकों ने खूब सराहा।

संवादो को सुन दर्शक दीर्घा में तालियों की गूंज बार-बार गूंजती रही। रणजीत की भूमिका निभा रहे विजय कुमार चौधरी ने अपने उम्दा अभिनय से लोगों में अपनी पहचान बनाई।

नीतेश की भूमिका में भुनेश्वर कुमार ने लोगों को अपने अदायगी से आत्ममुग्ध कर दिया। विश्वजीत की भूमिका में नाटक के निर्देशक कुमार मानव ने छाप छोड़ी।

बद्रीनाथ की भूमिका में मंतोष कुमार ने फिल्मी दुनिया के कन्हैया लाल की याद ताजा कर दी।

अन्य कलाकारों में मुसाफिर हिमांशु कुमार, बूढ़ा पागल कृष्णा तूफानी, युवक राजकिशोर, पत्रकार अर्चना कुमारी, पेपरवाला बलराम कुमार तथा अन्य पत्रों में प्रेम कुमार, नंद किशोर कुमार ने भी अपनी भूमिकाओं से नाटक को जीवंत बनाया।

प्रकाश परिकल्पना ब्रहम्मानन्द पाण्डेय ने किया तथा संगीत संयोजन मानसी एवं मयंक का था।

वहीं मंच परिकल्पना बलराम कुमार ने किया।

रूप सज्जा पायल कुमारी तथा राधा कुमारी एवं वस्त्र विन्यास सुनीता कुमारी का था।

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